BA Semester-3 DarshanShastra - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2642
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर

प्रश्न- गीता में वर्णित वर्ण एवं आश्रम का विवेचन कीजिए।

अथवा
गीता में वर्णित वर्ण व्यवस्था का विवेचना कीजिये।

अथवा
गीता में वर्णित आश्रम व्यवस्था का विवेचन कीजिए।

उत्तर -

भारतीय नीतिशास्त्र में वर्ण एवं आश्रम व्यवस्था का महत्वपूर्ण स्थान है। विभिन्न धर्मों का सम्पादन तथा स्वधर्म का अनुपालन वर्ण-व्यवस्था के माध्यम से किया जाता रहा है। सम्पूर्ण जीवन को चार भागों में विभाजित कर प्रत्येक भाग के लिए आश्रम व्यवस्था को स्वीकार किया गया है तथा प्रत्येक आश्रम के विहित कर्तव्यों के पालन पर बल दिया गया है।

वर्ण व्यवस्था -  वर्ण व्यवस्था का सम्बन्ध सामाजिक संरचना से है तथा इसके अंतर्गत वर्ण एवं धर्म दोनों की विवेचना की गई है। वर्ण-व्यवस्था में कर्म का प्रधान स्थान है जिसके अनुरूप प्रत्येक वर्ण का अपना विशिष्ट कर्तव्य है। इन कर्तव्यों को नैतिक कर्त्तव्य के रूप में भी जाना जाता है तथा इसे वर्ण-धर्म की भी संज्ञा दी गई है।

गीता वर्ण-व्यवस्था की उत्पत्ति के मूल में गुणों को स्वीकार करती है। मनुष्य की आन्तरिक प्रवृत्ति गुण को अभिव्यक्त करती है। प्रकृति में तीन प्रकार के गुण पाए जाते हैं - सत्व गुण, रजो गुण तथा तमो गुण। सभी गुणों में सत्व गुण श्रेष्ठ। सभी गुणों के अनुरूप अलग-अलग वर्णों का निर्धारण हुआ है। वैयक्तिक स्वभाव के आधार पर मनुष्य का गुण विकसित होता है। ब्राह्मण में सत्व गुण की प्रधानता होती है, क्षत्रिय में रजो गुण की प्रधानता होती है, वैश्य में तमस तथा रजो गुण की प्रधानता होती है। गीता में वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति के सिद्धान्त को गुणात्मक सिद्धान्त के रूप में जाना जाता है।

गीता वर्णों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में गुणात्मक सिद्धान्त के अतिरिक्त कर्म तथा धर्म सम्बन्धी सिद्धान्त का भी समर्थन करती है। कर्तव्यों की विभिन्नता के कारण ही विभिन्न वर्णों की संरचना की गई। सभी वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र) के अपने-अपने कर्तव्य थे जिनका समुचित पालन स्वधर्म कहलाया। गीता में स्वयं कृष्ण ने कहा कि मैंने गुण एवं कर्म के आधार पर चारों वर्णों की सृष्टि की है। गीता में चारों वर्णों के विभिन्न कर्त्तव्यों तथा धर्मों का उल्लेख हुआ है।

ब्राह्मण के कर्त्तव्य - ब्राह्मण की उत्पत्ति मुख से मानी गई है जिस कारण उसे श्रेष्ठ माना गया है। गीता के अनुसार अन्तःकरण का निग्रह, इंद्रियों को नियंत्रण में रखना, बाह्य एवं आन्तरिक शुद्धि रखना, क्षमा, सरलता, स्वाध्याय, श्रद्धा, अध्ययन, अध्यापन तथा ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करना ब्राह्मणों के धर्म हैं। समाज के सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक विकास का गुरुतर भार ब्राह्मण वर्ण के कन्धों पर ही टिका हुआ था परन्तु जो ब्राह्मण अपने स्वधर्म का पालन नहीं करता हो वह निन्दनीय है। वेदों का अध्ययन करना तथा तपस्या इनके प्रमुख कर्त्तव्यों में से थे। शम, दम, शौच, क्षांति, आर्जव, ज्ञान, विज्ञान, आस्तिक्य इत्यादि गुणों का होना ब्राह्मणों के लिए अनिवार्य था।

क्षत्रिय के कर्त्तव्य - क्षत्रिय वर्ण का सम्बन्ध शासक वर्ग से था। इसका मुख्य कर्त्तव्य चारों वर्णों को सुरक्षा प्रदान करना था। गीता में क्षत्रियों के स्वाभाविक कर्मों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि शूरता, वीरता, बल, धैर्य, चातुर्य, युद्ध से पलायन नहीं करना, दान देना तथा ईश्वर का होकर रहना क्षत्रियों के विहित कर्तव्य हैं। इन कर्त्तव्यों को क्षत्रिय वर्ण का स्वाभाविक लक्षण कहा गया है। धर्म की रक्षा के लिए युद्ध करना भी इनका कर्त्तव्य था। 

वैश्य के कर्त्तव्य वैश्य वर्ण ने अपने कर्म के रूप में कृषि तथा गोपालन को अपनाया। सामाजिक संरचना को आर्थिक दृष्टि से सुदृढ़ करना इनका मुख्य कर्त्तव्य था। गीता के अनुसार खेती, गोपालन, क्रय-विक्रय का काम करना तथा सत्य व्यवहार वैश्यों के प्रमुख कर्तव्य थे।

शूद्र के कर्त्तव्य - शूद्र का प्रमुख धर्म था अन्य वर्णों की सेवा करना। परिचर्या इनकी प्रधान "वृत्ति थी। तीनों वर्णों के सेवक के रूप में इन्हें जाना जाता था। सब वर्णों की सेवा करना शूद्र का स्वाभाविक कर्म है।

गीता के अनुसार वर्ण-व्यवस्था का आधार कर्म रहा है जो धर्ममूलक एवं आचारमूलक दोनों ही था। प्रत्येक वर्ण का निश्चित कर्म था जिसका सम्बन्ध वर्ण धर्म से था। सभी वर्णों में गुणों के आधार पर पृथकता को स्वीकार किया गया। 

आश्रम व्यवस्था - प्राचीन समाज में आश्रम व्यवस्था का महत्वपूर्ण स्थान था। मानव जीवन को सुव्यवस्थित करने के लिए प्राचीन भारतीय नैतिक चिन्तकों ने इस संस्था की आधारशिला रखी थी। लौकिक कर्त्तव्यों का सम्पादन मनुष्य इन आश्रमों के माध्यम से करके तब वह पारलौकिक जीवन के प्रति समर्पित होता था। मानव जीवन को चार भागों में बाँटकर तद्नुरूप चार आश्रमों की परिकल्पना की गई थी। वे चार आश्रम थे ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास। गीता में आश्रम व्यवस्था की उत्पत्ति ब्रह्मा से मानकर इसे दैवी स्वरूप प्रदान किया गया है। चारों आश्रमों के कर्त्तव्यों का सम्पादन करने से व्यक्ति का विकास होता था। साथ ही पुरुषार्थ की अभिव्यक्ति आश्रम के द्वारा होती थी। वास्तव में, ब्रह्मा ने धर्म-संरक्षण के लिए चार आश्रमों की संरचना की।

(i) ब्रह्मचर्य आश्रम - ब्रह्मचर्य आश्रम विद्या एवं शिक्षा प्राप्ति का आश्रम था। ब्रह्मचर्य दो शब्दों ब्रह्म तथा चर्य के संयोग से बना है। 'ब्रह्म' का अर्थ है 'वेद' तथा 'चर्य' का अर्थ है 'अनुसरण करना' अर्थात् ब्रह्म के मार्ग पर अग्रसर होना। गीता के अनुसार ब्रह्मचर्य आश्रम में रहने वाले ब्रह्मचारी को आन्तरिक एवं बाह्य शुद्धि, वैदिक संस्कार तथा व्रत नियमों का अनुपालन करते हुए अपने मन को वश में रखना चाहिए। दोनों समय संध्योपासन, सूर्योपासन, अग्निदेव की आराधना करना प्रमुख कर्त्तव्य थे। आलस्य को त्यागकर प्रतिदिन गुरु को प्रणाम करना, वेदों के अभ्यास एवं श्रवण से अन्तरात्मा को शुद्ध करना चाहिए। तीन समय स्नान करना वर्णित है। ब्रह्मचारी के मुख्य कार्यों में था नित्य भिक्षाटन करना तथा प्राप्त सामग्री को गुरु की सेवा में अर्पित करना। गुरु की आज्ञा का अक्षरशः पालन करना। गुरु के आदेश के विपरीत कार्य नहीं करना चाहिए। गुरु की कृपा से स्वाध्याय में सदैव लगा रहना चाहिए। ब्रह्मचारी का जीवन सभी धर्मों में अत्यन्त ही श्रेष्ठ, ब्रह्मस्वरूप एवं आदरयुक्त था। इसका अनुसरण एवं अनुपालन करने से परम गति की प्राप्ति होती थी। इस आश्रम में तीन प्रकार के छात्र (उत्तम, मध्यम एवं कनिष्ठ ) शिक्षा ग्रहण करते थे।

(ii) गृहस्थ आश्रम - भारतीय सामाजिक व्यवस्था में गृहस्थ आश्रम अत्यधिक लोकप्रिय रहा है, क्योंकि अन्य सभी आश्रमों का वह आधारस्तम्भ है। व्यास के शब्दों में गृहस्थ धर्म का पालन करने वाले को घर में ही सभी तीर्थों की प्राप्ति होती है तथा उसके पाप धुल जाते हैं। गीता के अनुसार, गृहस्थ आश्रम को सभी आश्रमों से सर्वोत्कृष्ट माना गया है। इस आश्रम में ही देवताओं, पितरों तथा अतिथियों को प्रसन्न किया जाता है एवं धर्म, अर्थ, काम रूपी त्रिवर्ग की प्राप्ति की जाती है। गृहस्थ आश्रम में रहकर व्यक्ति अपने नाना प्रकार के कर्मों का सम्पादन करता था। अपनी पत्नी तथा घर की रक्षा करना, न दी गई वस्तु को ग्रहण नहीं करना इत्यादि गृहस्थ के सुखद कर्म थे ! इस आश्रम के कर्त्तव्यों के सम्पादन से धर्म की प्राप्ति होती थी।

इस आश्रम में कर्मयोग की प्रधानता रही है। गृहस्थ आश्रम में व्यक्ति अपने सभी प्रकार के ऋणों से मुक्त होता था। इस आश्रम के द्वारा मनुष्य अपने सामाजिक दायित्वों का निर्वहन करता था।

(iii) वानप्रस्थ आश्रम - गृहस्थ धर्मों तथा कर्त्तव्यों के सम्पादन के पश्चात् व्यक्ति सांसारिक मोह-माया का परित्याग कर इस आश्रम में प्रवेश करता था। इस आश्रम में त्याग, तप, अहिंसा एवं ज्ञान का अर्जन करता था। गृहस्थ को अपने समस्त दायित्वों एवं कर्त्तव्यों से निवृत्त होकर अपने आयु के तीसरे भाग में वन की ओर प्रस्थान करना चाहिए। वानप्रस्थ आश्रम के साधक के धर्म हैं- सज्जनता, क्षमा, दम, शौच, वैराग्य, अमत्सरता, अहिंसा एवं सत्य-सम्भाषण। यह आश्रम मोक्ष के मार्ग का दिग्दर्शन कराता था तथा व्यक्ति को साधना एवं तपस्या के लिए प्रेरित करता था।

(iv) सन्यास आश्रम - इस आश्रम का सम्बन्ध जीवन के अंतिम भाग से था। संन्यास आश्रम के माध्यम से परम पुरुषार्थ मोक्ष की प्राप्ति की जाती थी। संन्यास आश्रम के साधक को भिक्षु या यति कहा जाता था। यहाँ व्यक्ति निःस्पृह भाव से मोक्ष प्राप्ति में संलग्न रहता था। साधना एवं तपस्या उसका आधार था। साधक अग्नि, धन, पत्नी एवं संतान के प्रति अनासक्त रहे, सुख के साधनों का परित्याग करने को कहा गया तथा सबों को समान दृष्टि से देखे। संन्यास आश्रम के साधक को क्रोध-मोह का परित्याग करना चाहिए, अहिंसा, सत्य, अस्त्रेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर प्राणिधान का पालन करने को कहा गया।

अतः, यह कहा जा सकता है कि गीता के आश्रम - व्यवस्था के द्वारा व्यक्ति के जीवन एवं व्यक्तित्व का उत्थान किया जाता था।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ की अवधारणा की विवेचना कीजिए।
  2. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित लोक संग्रह की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  3. प्रश्न- गीता के नैतिक या आदर्श सिद्धान्त का संक्षिप्त विश्लेषण कीजिए।
  4. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की विस्तारपूर्वक व्याख्या कीजिए।
  5. प्रश्न- गीता में वर्णित गुण की विवेचना कीजिए।
  6. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित स्वधर्म की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  7. प्रश्न- गीता में वर्णित योग शब्द की विवेचना कीजिए।
  8. प्रश्न- गीता में वर्णित वर्ण एवं आश्रम का विवेचन कीजिए।
  9. प्रश्न- स्थितप्रज्ञ के लक्षण क्या हैं? क्या मनुष्य जीवन में इस स्थिति को प्राप्त कर सकता है? संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  10. प्रश्न- निष्काम कर्मयोग का परिचय दीजिए।
  11. प्रश्न- गीता में प्रवृत्ति और निवृत्ति से आप क्या समझते हैं?
  12. प्रश्न- कर्म के सिद्धान्त का महत्व बताइए।
  13. प्रश्न- कर्म सिद्धान्त के दोष बताइए।
  14. प्रश्न- कर्मयोग के सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  15. प्रश्न- लोक संग्रह पर टिप्पणी लिखिए।
  16. प्रश्न- भगवद्गीता में 'लोकसंग्रह के आदर्श' की विवेचना कीजिए।
  17. प्रश्न- पुरुषार्थ के अर्थ एवं महत्व की विवेचना कीजिए।
  18. प्रश्न- पुरुषार्थ की अवधारणा व विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए।
  19. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त के रूप में पुरुषार्थ की व्याख्या कीजिए।
  20. प्रश्न- विभिन्न पुरुषार्थ की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  21. प्रश्न- पुरुषार्थ का विश्लेषण कीजिए।
  22. प्रश्न- पुरुषार्थ में सन्निहित मानवीय मूल्यों के अन्तर्सम्बन्ध की व्याख्या कीजिए।
  23. प्रश्न- पुरुषार्थ किसे कहते हैं?
  24. प्रश्न- धर्म किसे कहते हैं?
  25. प्रश्न- अर्थ किसे कहते हैं?
  26. प्रश्न- काम किसे कहते हैं?
  27. प्रश्न- धर्म पुरुषार्थ का जीवन में क्या महत्व है?
  28. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र में 'पुनर्जन्म के सिद्धान्त' की व्याख्या कीजिए।
  29. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप परिभाषा दीजिए तथा इसके क्षेत्रों का उल्लेख करते हुए इसकी समस्याओं का विश्लेषण कीजिए।
  30. प्रश्न- धर्म-दर्शन एवं धर्म के परस्पर सम्बन्धों का विश्लेषणात्मक विवेचन कीजिए।
  31. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप की व्याख्या कीजिए। यह ईश्वरशास्त्र से किस प्रकार भिन्न है?
  32. प्रश्न- धर्म और दर्शन में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  33. प्रश्न- धर्म का क्या अभिप्राय है? सामान्य धर्म के लिए मनुस्मृति में किन मानवीय गुणों का उल्लेख किया गया है?
  34. प्रश्न- विशिष्ट धर्म किसे कहते हैं? इसके प्रमुख स्वरूपों की व्याख्या कीजिए।
  35. प्रश्न- सामान्य धर्म और विशिष्ट धर्म में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  36. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? व्याख्या कीजिए।
  37. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के पंचमहाव्रत सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  38. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के अणुव्रत सिद्धान्त का विवेचना कीजिए।
  39. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की तात्विक पृष्ठभूमि का विवेचन कीजिए।
  40. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
  41. प्रश्न- परमश्रेय की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  42. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र में 'त्रिरत्न' की अवधारणा की विवेचन कीजिए।
  43. प्रश्न- बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग की व्याख्या कीजिए।
  44. प्रश्न- 'बोधिसत्व' किसे कहते हैं? स्पष्ट कीजिए।
  45. प्रश्न- निर्वाण के स्वरूप का विवेचन कीजिए।
  46. प्रश्न- 'अर्हत्' पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  47. प्रश्न- बुद्ध के नीतिशास्त्र में साधन विचार का विवेचन कीजिए।
  48. प्रश्न- बौद्ध के नीतिशास्त्र सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  49. प्रश्न- गांधीवाद से आप क्या समझते हैं? राज्य के कार्यक्षेत्र के सम्बन्ध में महात्मा गांधी की विचारधारा का वर्णन कीजिए।
  50. प्रश्न- गांधीवादी दर्शन का मूल आधार धर्म (सत्य और अहिंसा) था, संक्षेप में स्पष्ट करें।
  51. प्रश्न- गांधी जी की कार्य पद्धति पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  52. प्रश्न- सत्याग्रह से आप क्या समझते हैं संक्षेप में समझाइये?
  53. प्रश्न- महात्मा गाँधी द्वारा प्रतिपादित ट्रस्टीशिप सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  54. प्रश्न- गाँधी जी के सात सामाजिक पाप कौन-से हैं?
  55. प्रश्न- गाँधी जी के एकादश व्रत कौन-से हैं? व्याख्या कीजिए।
  56. प्रश्न- नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? परिभाषा देते हुए इसका अर्थ स्पष्ट कीजिए।
  57. प्रश्न- नीतिशास्त्र मानवशास्त्र से किस तरह जुड़ा है? स्पष्ट कीजिये।
  58. प्रश्न- नीतिशास्त्र की विषय-वस्तु क्या है? स्पष्ट कीजिए।
  59. प्रश्न- नीतिशास्त्र से क्या अभिप्राय है? इसकी प्रकृति एवं क्षेत्र बताते हुए भारतीय एवं पाश्चात्य नीतिशास्त्र में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  60. प्रश्न- नीतिशास्त्र की प्रणालियों पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
  61. प्रश्न- टेलीलॉजिकल नैतिकता और कर्तव्य आधारित नैतिकता का क्या अर्थ है? इन दोनों में अन्तर बताइए।
  62. प्रश्न- कान्ट के नैतिक सिद्धान्त को समझाइए।
  63. प्रश्न- नैतिक विकास का क्या अर्थ है? नैतिक विकास के चरणों का उल्लेख कीजिए।
  64. प्रश्न- नीतिशास्त्र एक आदर्श निर्देशक सिद्धान्त है। व्याख्या कीजिए।
  65. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र को प्राथमिक जड़े कहाँ मिलती हैं? स्पष्ट कीजिए।
  66. प्रश्न- क्या नीतिशास्त्र एक विज्ञान है?
  67. प्रश्न- नैतिक तथा नैतिक-शून्य कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  68. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की अवधारणा की व्याख्या कीजिए और उसकी काण्ट के कर्तव्य की अवधारणा से तुलना कीजिए।
  69. प्रश्न- नैतिक कर्म तथा नैतिक-शून्य कर्म में अन्तर लिखिए।
  70. प्रश्न- ऐच्छिक तथा अनैच्छिक कर्मों से आप क्या समझते हैं?
  71. प्रश्न- ऐच्छिक व अनैच्छिक कर्म में अन्तर बताइए।
  72. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? इसका स्वरूप तथा विशेषताएँ बताइए।
  73. प्रश्न- क्या नैतिक निर्णय कर्मों के परिणाम के आधार पर होता है? विवेचना कीजिए।
  74. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं अन्य निर्णयों में क्या अन्तर है?
  75. प्रश्न- 'साध्यों का साम्राज्य।' व्याख्या कीजिए।
  76. प्रश्न- नैतिक चेतना से आप क्या समझते हैं?
  77. प्रश्न- नैतिक चेतना के मुख्य तत्व बताइए।
  78. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति से आपका क्या तात्पर्य है?
  79. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति के लक्षण बताइए।
  80. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? साधन व साध्य का नीतिशास्त्र में क्या महत्व है?
  81. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं तार्किक निर्णय में अंतर क्या है?
  82. प्रश्न- क्या साध्य साधन को प्रमाणित करता है?
  83. प्रश्न- नैतिक निर्णय की आवश्यक मान्यताएँ क्या हैं? व्याख्या कीजिए।
  84. प्रश्न- नैतिकता की मान्यताओं की व्याख्या कीजिए।
  85. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक मान्यताओं का वर्णन कीजिए।
  86. प्रश्न- नैतिकता में किसका प्राधिकार है "चाहिए" का या आवश्यक का।
  87. प्रश्न- अनैतिक कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  88. प्रश्न- सुखवाद से आप क्या समझते हैं? यह कितने प्रकार का होता है?
  89. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक सुखवाद से आप क्या समझते हैं? समीक्षा कीजिए।
  90. प्रश्न- प्राचीन सुखवाद की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  91. प्रश्न- विकासवादी सुखवाद क्या है?
  92. प्रश्न- उपयोगितावाद के लिये सिजविक की क्या युक्तियाँ हैं? व्याख्या कीजिए।
  93. प्रश्न- बैन्थम के उपयोगितावाद की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  94. प्रश्न- बैंन्थम के स्थूल परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  95. प्रश्न- मिल के परिष्कृत उपयोगितावाद का आलोचनात्मक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  96. प्रश्न- मिल के परिष्कृत परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  97. प्रश्न- उपयोगितावाद एवं अन्तःअनुभूतिवाद के सापेक्षिक गुणों का संकेत कीजिए।
  98. प्रश्न- कर्मवाद का सिद्धान्त भारतीय दर्शन का मुख्य स्तम्भ है। व्याख्या कीजिए।
  99. प्रश्न- मिल के उपयोगितावाद की प्रमुख विशेषताएं क्या है?
  100. प्रश्न- "सुखवाद के विरोधाभास" को स्पष्ट कीजिए।
  101. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक एवं नैतिक सुखवाद में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  102. प्रश्न- नैतिक सिद्धान्त के रूप में अन्तः प्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  103. प्रश्न- रसेन्द्रियवाद क्या है? विवेचन कीजिए।
  104. प्रश्न- दार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का समीक्षात्मक विवेचन कीजिए।
  105. प्रश्न- बटलर के अन्तःकरणवाद या अन्तःप्रज्ञावाद सिद्धान्त का विवेचन कीजिए।
  106. प्रश्न- नैतिक गुण के विषय में अन्तः प्रज्ञावाद के विचार का विवेचन कीजिए।
  107. प्रश्न- अदार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  108. प्रश्न- काण्ट के अहेतुक आदेश के सिद्धान्त का आलोचनात्मक विवेचन कीजिए।
  109. प्रश्न- बुद्धिवाद या कठोरतावाद तथा सुखवाद क्या है? वर्णन कीजिए।
  110. प्रश्न- स्टोइकवाद क्या है? व्याख्या कीजिए।
  111. प्रश्न- मध्यकालीन बुद्धिवाद या ईसाई वैराग्यवाद की व्याख्या कीजिए।
  112. प्रश्न- काण्ट के कठोरतावाद के रूप में आधुनिक बुद्धिवाद की व्याख्या कीजिए।
  113. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक सूत्र का आलोचनात्मक परिचय दीजिए।
  114. प्रश्न- काण्ट के नैतिक सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
  115. प्रश्न- काण्ट के नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए एवं गीता के निष्काम कर्म से इसकी तुलना कीजिए।
  116. प्रश्न- काण्ट के बुद्धिवादी नीतिशास्त्र का समीक्षात्मक मूल्यांकन कीजिए।
  117. प्रश्न- काण्ट के अनुसार निरपेक्ष आदेश “Categorical Imprative” की व्याख्या कीजिए।
  118. प्रश्न- दण्ड के सिद्धान्त से आप क्या समझते हैं? दण्ड के प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  119. प्रश्न- दण्ड के सुधारात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए। क्या मृत्युदण्ड उचित है? विवेचना किजिये।
  120. प्रश्न- दण्ड के विभिन्न सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।
  121. प्रश्न- दण्ड का अर्थ तथा उद्देश्य क्या है?
  122. प्रश्न- दण्ड का दर्शन क्या है?

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